सोमवार, 12 जनवरी 2009

शहर बनाम गाँव

बडे ही चर्चे होते हैं शहर के और गाँव के
माल की ठंढी हवा और बरगद की छांव के
तुलना होती है हाइवे से पगडण्डी की
और मेट्रो की चमचमाती फर्श पर फिसलते पाँव की
दीये की दम तोड़ती लो को छोड़ कर कोई यूँ ही नहीं आता है
जीवन से भी कीमती रिश्ते और नाते को दाँव पर लगाता है
सफल व्यवसाई हो या हो कोई मजदूर
कुछ पल को ही सही सबका गला भर आता है
जवानी बीत जाती है जीवन की रंगरलियों में
चमकती सड़क पर, बाजार में और सुहानी गलिओं में
सेल में लुटाता है परिश्रम का पैसा
ढलती उम्र में मगर एकदिन
छिप कर आंसू बहाता है
शहर तो एक प्रेयशी है
कहीं तो मेनका और कहीं उर्वशी है
साथ निभाती है सुख के दिनों में
मगर इसकी भी अपनी कुछ बेवशी है
बुजुर्गों की आहें शहर के सुख का राज खोलती हैं
क्या खोया और क्या पाया सभी कुछ तो बोलती हैं
क्या होता है जीवन का एकाकी प
समय के तराजू में सभी कुछ तोलती हैं
लेकिन क्या गांवों में भी सब कुछ सामान्य है
जाकर जरा देभो तो वहां बहुत कुछ असामान्य है
सभी एक दुसरे को जानते हैं मगर
एक की सफलता दुसरे को अमान्य है
बाहों में बाहें डाल कर साथ साथ तो चलते हैं
सफल होने की चाहत में आगे आने को मचलते हैं
मगर अपनी सीमाओं और मजबूरियों के कारण
अपने ही हाथों से अरमानों को कुचलते हैं
यही तो है आम आदमी की कहानी
कहीं तो है चहल पहल और कहीं है विरानी
गाँव हो या हो कोई शहर मिल जाता है अपनापन
छिपा होता है सबके सीने में इसकी कई निशानी

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