बुधवार, 11 अगस्त 2010

शिला बनाम शीला

शिला जी चुप चुप यहाँ समय बड़ा गंभीर
दिल्ली वाले दहल रहे पर सुने न कोई पीर
सुने न कोई पीर पराई लगने लगी है नगरी
असंतोष और क्षोभ के कारण भरी पड़ी है गगरी
खोद - खाद कर सब गलियों को बना दिया है गड्ढा
उनको क्या इनमें गिरते हैं मल्होत्रा या चड्ढा
चार दिनों का खेल मगर है बरसों की तैयारी
अपने नेता मंत्री गण को लग गई नई बिमारी
परदेसी पिल्लों की खातिर बंद करो अब बिल्ली
नाक किसी की कट न जाए साफ़ करो सब दिल्ली
फरमानों के आने में जो हो गई ज़रा सी देर
चारो तरफ से अपनी दिल्ली मलवों की है ढेर
जरा सी बूंदा बंदी हो तो होता चेहरा पीला
पानी भरने पर राहों में खोज रहे हम शीला

कोई टिप्पणी नहीं:

मेरे बारे में