बुधवार, 15 दिसंबर 2010

सबको मेरा प्रणाम

कितना भागें भाग भाग कर थक गए मेरे पाँव
इस चक्कर में शहर जो आया छूटा प्यारा गाँव
छुटा प्यारा गाँव याद आती है उसकी गलियाँ
ऊपर से सर्दी का मौसम और मटर कि फलियाँ
ऊँचे पर्वत बहती नदियाँ फैली थी हरियाली
मिला बहुत कुछ यहाँ मगर अपनी तो झोली खाली
धुंआ धक्कड़ और प्रदुषण गला काट स्पर्धा
जीवन में अभाव वहां पर लेकिन मन में श्रद्धा
सोच हमारी हो सकती है औरों से कुछ हट कर
नाते रिश्ते पड़े किनारे रहते हैं हम कट कर
सरसों पालक चना चबेना फलते थे जब बेर
थोड़ी कसरत और मसक्कत लग जाते थे ढेर
आज यहाँ पैसा पाकेट में लेकिन क्या कुछ लायें
महंगाई कुछ ऐसी बढ़ गई सर धुन कर पछ्ताएं
हाल बड़ा बेहाल हुआ अब कोई हमें बचा ले
राह बची हो कोई तो फिर उस पर रौशनी डाले
किसकी बोलेन किसकी सोचें सबने मन में ठानी
कल हो जाए कितना दुखकार करते हैं मनमानी
आज के गाँव की भी सुन लो बदले सभी नज़ारे
होठों पर मुस्कान नहीं पर नयन सभी कजरारे

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