सोमवार, 30 अगस्त 2010

माँ की याद में

आकाश जैसा विस्तृत

मखमल जैसा कोमल

पकड़ कर चलना सिखा था

जिसका आँचल

सोचता हूँ याद कर

ममता के उस ताने बाने को

बाँध लूँ छोटी सी गठरी

कविता की

माँ को उपहार देने के लिए

याद आते ही आँचल का कोना

खिल उठता है यह दिल खिलौना

जिसके सहारे बड़ा हुआ था

याद है बचपन के वे दिन

जब माँ ही सच थी , शाश्वत थी

और उसकी हर सीख थी

एक पत्थर की लकीर

ओस भरी रातों में ठंढ से ठिठुरता था जब

माँ की आँचल में छिप जाता था तब

बिना रजाई के भी मिल जाती थी गर्माहट

और

पल भर में गहरी नींद में सो जाता था मैं

घर के बाहर कितने भी बहते थे आंसू

आँचल की ओट मिलते हीं

खिल उठती थी होठों की मुस्कान

कभी चपत भी खाया था

मगर होते थे मीठे

यादें ताज़ी हैं उनकी ,

कदम दर कदम

याद है

जब मैं निकला था पहली बार

घर से

लम्बे प्रवास के लिए

माँ की ममता आँखों से निकल कर

आँचल को भिगो रही थी

और मैं

चल पडा था भारी मन से

उसके हाथों की बनी रोटी साथ लिए

खोजता हूँ माँ को आज ,

उसी पुराने घर में जाकर

खंडहर सा दिखता है वह ,

उसके वहां न मिलने पर

चला आता हूँ वापस खाली हाथ

मायूस मगर यादों को समेटे हुए

कोसता हूँ नियति के उन नियमों को

जिसने दूर कर दिया मुझे मेरी माँ से

मगर

वह तो सदा हीं मेरे पास है

मेरे मन में , अंतर्मन में , और कण कण में

कोई टिप्पणी नहीं:

मेरे बारे में