बुधवार, 15 दिसंबर 2010

सबको मेरा प्रणाम

कितना भागें भाग भाग कर थक गए मेरे पाँव
इस चक्कर में शहर जो आया छूटा प्यारा गाँव
छुटा प्यारा गाँव याद आती है उसकी गलियाँ
ऊपर से सर्दी का मौसम और मटर कि फलियाँ
ऊँचे पर्वत बहती नदियाँ फैली थी हरियाली
मिला बहुत कुछ यहाँ मगर अपनी तो झोली खाली
धुंआ धक्कड़ और प्रदुषण गला काट स्पर्धा
जीवन में अभाव वहां पर लेकिन मन में श्रद्धा
सोच हमारी हो सकती है औरों से कुछ हट कर
नाते रिश्ते पड़े किनारे रहते हैं हम कट कर
सरसों पालक चना चबेना फलते थे जब बेर
थोड़ी कसरत और मसक्कत लग जाते थे ढेर
आज यहाँ पैसा पाकेट में लेकिन क्या कुछ लायें
महंगाई कुछ ऐसी बढ़ गई सर धुन कर पछ्ताएं
हाल बड़ा बेहाल हुआ अब कोई हमें बचा ले
राह बची हो कोई तो फिर उस पर रौशनी डाले
किसकी बोलेन किसकी सोचें सबने मन में ठानी
कल हो जाए कितना दुखकार करते हैं मनमानी
आज के गाँव की भी सुन लो बदले सभी नज़ारे
होठों पर मुस्कान नहीं पर नयन सभी कजरारे

रविवार, 12 दिसंबर 2010

लोन

लोन इतना लीजिये जाने नहीं पड़ोस
चुकता हो आसानी से उड़े कभी न होश
उड़े कभी न होश हाथ में हरदम अपना तोता
चैन कि बंशी बजे निरंतर दादा हो या पोता
माना बदल रही है दुनिया बदले सभी नज़ारे
उलटा पुल्टा हो जाता है हर दिन हर पखवारे
लेकिन लोन के कारण देखो कितने नींद गंवाते हैं
ब्याज के ऊपर ब्याज जुड़े तो सर धुन कर पछताते हैं
ऊपर से परेशानी इतनी परिवार टूट जाता है
खर्चे पुरे ना होने पर सबका जी घबराता है
लेना तो आसान सदा से देना थोड़ा मुश्किल है
हृदय सभी का कोमल किसलय नहीं किसी का संगदिल है
यदि काम रुकता हो कोई कुछ दिन कर लो मौन
लेना हो तो ले लो लेकिन थोड़े लेना लोन

गुरुवार, 25 नवंबर 2010

बिहार में वोट

चारा चट करनेवालों को मिली करारी चोट

जनता ने जब चुन लिया दे नितीश को वोट

दे नितीश को वोट बदलने को तत्पर थे सारे

जातिवादी सोच से कब तक लड़ें बचारे

होना था सब पहले लेकिन हुआ देर से आज

जनता जगने को आतुर थी बदला आज समाज

इतने दिन सहते रहे शब्द ' बिहारी ' गाली

क्योंकि उनके अधिकारों की नहीं हुई रखवाली

आंधी जब चलने लगी कहते जिसे विकास

मुर्ख बनाने वालों का तो हो गया सत्यानाश

आये दिन सुख के चलो अपने घर की ओर

वरना फिर से घुस आयेगा वही पुराना चोर

सोमवार, 30 अगस्त 2010

माँ की याद में

आकाश जैसा विस्तृत

मखमल जैसा कोमल

पकड़ कर चलना सिखा था

जिसका आँचल

सोचता हूँ याद कर

ममता के उस ताने बाने को

बाँध लूँ छोटी सी गठरी

कविता की

माँ को उपहार देने के लिए

याद आते ही आँचल का कोना

खिल उठता है यह दिल खिलौना

जिसके सहारे बड़ा हुआ था

याद है बचपन के वे दिन

जब माँ ही सच थी , शाश्वत थी

और उसकी हर सीख थी

एक पत्थर की लकीर

ओस भरी रातों में ठंढ से ठिठुरता था जब

माँ की आँचल में छिप जाता था तब

बिना रजाई के भी मिल जाती थी गर्माहट

और

पल भर में गहरी नींद में सो जाता था मैं

घर के बाहर कितने भी बहते थे आंसू

आँचल की ओट मिलते हीं

खिल उठती थी होठों की मुस्कान

कभी चपत भी खाया था

मगर होते थे मीठे

यादें ताज़ी हैं उनकी ,

कदम दर कदम

याद है

जब मैं निकला था पहली बार

घर से

लम्बे प्रवास के लिए

माँ की ममता आँखों से निकल कर

आँचल को भिगो रही थी

और मैं

चल पडा था भारी मन से

उसके हाथों की बनी रोटी साथ लिए

खोजता हूँ माँ को आज ,

उसी पुराने घर में जाकर

खंडहर सा दिखता है वह ,

उसके वहां न मिलने पर

चला आता हूँ वापस खाली हाथ

मायूस मगर यादों को समेटे हुए

कोसता हूँ नियति के उन नियमों को

जिसने दूर कर दिया मुझे मेरी माँ से

मगर

वह तो सदा हीं मेरे पास है

मेरे मन में , अंतर्मन में , और कण कण में

मंगलवार, 17 अगस्त 2010

प्यार बयार बहा कर दिलों में

बरसों से सिसकती भारत की धरती

लेने लगी है अंगड़ाई

ये तो एक सुरुआत है

आगे बाकी है बहुत सी लड़ाई

दबे कुचले भारत के किसान

पाने लगे हैं अपनी पहचान

मिलने लगी है कर्ज से मुक्ति

नहीं रहे अपने हीं घर में मेहमान

बच्चे विद्यालय जाने लगे हैं

अब वे भूखे नहीं पेट भर खाने लगे हैं

तन पर पूरे कपडे भी हैं उनके

और एकता के गीत गुनगुनाने लगे हैं

महिलायें नहीं रहीं अनपढ़ या जाहिल

कोई नहीं कहता उनको अब काहिल

मजबूत होकर उभर रही है मातृशक्ति

भंवर से निकलने लगा है अपना साहिल

लेकिन अभी भी है बाकी कुछ उलझन

विकाश के पथ पर पड़ी है कुछ अड़चन

थोड़े ही सही नासमझों की नासमझी से

समाज में दिखता है कहीं कहीं बिघटन

हमें फिर से समानता लाना होगा

भारत भू से जातिवादी भेद मिटाना होगा

प्यार बयार बहा कर दिलों में

देश भक्ति के गीत गुनगुनाना होगा

शनिवार, 14 अगस्त 2010

आजादी का तिरसठवाँ साल

आजादी का तिरसठवाँ साल

वर्षों बीते आजादी के क्या कीमत ईमान की
बच्चा बच्चा देख रहा है करतब कुछ इंसान की
वंदे मातरम वंदे मातरम वंदे मातरम वंदे मातरम

लूट मची है सभी क्षेत्र में सरकारें सहभागी हैं
आज देश के हर कोने में इतने सारे बागी हैं
कर का दर इतना ऊपर की इसमें चोरी होती है
अधिकारी नेता और मंत्री सबके सब अब दागी हैं
दीन हीन हम बन बैठे पर कमी नहीं गुणगान की
बच्चा बच्चा देख रहा है करतब कुछ इंसान की
वंदे मातरम वंदे मातरम वंदे मातरम वंदेमातरम

झारखंड के पूर्व मंत्री कोड़ा की करनी काली है
अरबों का जो किया घोटाला जनता आज सवाली है
फंसा पडा जो जेलों में देश द्रोह का काम किया
नाम नहीं लेनेवाला अब जीवन विष की प्याली है
बदनाम किया आदिम समाज को क्या कीमत बलिदान की
बच्चा बच्चा देख रहा है करतब कुछ इंसान की
वंदेमातरम बंदेमातरम बंदेमातरम बंदेमातरम

कामनवेल्थ के कारन देखो कितने तो बदनाम हुए
कलमाड़ी से शिला जी तक सबके सब नाकाम हुए
हर कोने में पड़े हैं रोड़े कंकड़ मिटटी यहाँ वहाँ
ऊपर से बरसात का मौसमकूड़ा कचरा सड़े हुए
असफल होकर चौड़ा सीना क्या है दीन ईमान की
बच्चा बच्चा देख रहा है करतब कुछ इंसान की
बंदेमातरम बंदेमातरम बंदेमातरम वंदेमातरम

आजादी बस मिली उन्हें जो अफसर मंत्री नेता हैं
मिलता है अधिकार उन्हें और बनते सभी प्रणेता हैं
कुल नासक करनी जब उनकी कैसे हम विस्वास करें
व्यवसायी बन बठे हैं सब हम तो केवल क्रेता हैं
आज नहीं कल कैसे अपना जनता है परेशान सी
बच्चा बच्चा देख रहा है करतब कुछ ईन्सान की
वंदेमातरम वंदेमातरम वंदेमातरम वंदेमातरम

बुधवार, 11 अगस्त 2010

शिला बनाम शीला

शिला जी चुप चुप यहाँ समय बड़ा गंभीर
दिल्ली वाले दहल रहे पर सुने न कोई पीर
सुने न कोई पीर पराई लगने लगी है नगरी
असंतोष और क्षोभ के कारण भरी पड़ी है गगरी
खोद - खाद कर सब गलियों को बना दिया है गड्ढा
उनको क्या इनमें गिरते हैं मल्होत्रा या चड्ढा
चार दिनों का खेल मगर है बरसों की तैयारी
अपने नेता मंत्री गण को लग गई नई बिमारी
परदेसी पिल्लों की खातिर बंद करो अब बिल्ली
नाक किसी की कट न जाए साफ़ करो सब दिल्ली
फरमानों के आने में जो हो गई ज़रा सी देर
चारो तरफ से अपनी दिल्ली मलवों की है ढेर
जरा सी बूंदा बंदी हो तो होता चेहरा पीला
पानी भरने पर राहों में खोज रहे हम शीला

ममता का लाल सलाम

ममता का लाल सलाम
ममता- माओवाद में नहीं रहा अब भेद
मरने पर आजाद के दोनों को है खेद
दोनों को है खेद तभी तो रैली एक बुलाया
मंच बनाया रंज दिखाया गर्जन एक सुनाया
लेकिन उनको कहाँ पता कितने मरते हैं लोग
झारग्राम की घटना के पीछे भी दिखता एक संजोग
माओवादी निरपराध अपराधी सारे रक्षक
ममता जैसी नेता जब बन जाएँ घर में तक्षक
वोट की रोटी बनती जाए दुनिया से क्या लेना
माओवादी उनके साथी मरती रहेगी सेना
परिभाषा अब बदल रही है इस को कह लो समता
लालगढ़ में लाल सलाम लगाकर आई ममता

शुक्रवार, 6 अगस्त 2010

कामनवेल्थ के नाम पर

दिल्ली दुल्हन बन गई मंडप है तैयार

बाराती आने को तत्पर सांसत में सरकार

सांसत में सरकार निरंतर खुलने लगे हैं ताले

जहमत में जनता कुछ ऐसी छीन गए सभी निवाले

अधिकारी कुछ ऐसे जिनके गले पड़ी है माला

एक रंग में रंग गए सब करके कोई घोटाला

शिला जी चुप चुप यहाँ जैसे भीगी बिल्ली

कामन वेल्थ के नाम पर खुदी पड़ी है दिल्ली

वक़्त नहीं

हर खुसी है लोगों के दामन में
पर एक हंसी के लिए वक़्त नहीं
दिन रात दोड़ती दुनिया में ,
जिंदगी के लिए ही वक़्त नहीं

माँ की लोरी का एहसास तो है ,
पर माँ को माँ कहने का अब वक़्त नहीं
सारे रिश्तों को तो हम मार चुके ,
पर उनको दफनाने का भी वक़्त नहीं

सारे नाम मोबाइल में तो बंद हैं ,
पर उनको याद करने का वक़्त नहीं
गैरों की हम क्या बात करें ,
जब अपनों के लिए भी वक़्त नहीं

आँखों में है नींद बड़े
पर सोने का भी वक़्त नहीं
दिल है घावों से भरा हुआ
पर रोने का भी वक़्त नहीं

पैसों की दुनियां में ऐसे दौड़े की
थकने का भी वक़्त नहीं
पराये एहसासों की क्या क़द्र करें
जब अपने सपनों को हीं वक़्त नहीं

तू ही बता ऐ जिंदगी ,
इस जिंदगी का क्या होगा
हर पल मरने वालों को
अब जीने का जब वक़्त नहीं

इंटर नेट से

मंगलवार, 6 जुलाई 2010

कर्मवीर

कर्मवीर
कौन कहा तक चल पायेगा ये तो कहना मुश्किल है
लेकिन दुनिया के प्रांगन में सबकी अपनी मंजिल है
बाधाएं आकर जब पलपल हमें हैं जगाती जाती हैं
मन बगिया को हिला डुला कर हमें सताती जाती हैं
लेकिन उसमें भी है मस्ति ,उसमें भी कुछ खुशियाँ हैं
आगे बढ़ कर नियति बन कर राह बनाती जाती हैं
कौन कहाँ तक सह पायेगा ये तो कहना मुस्किल है
लेकिन दुनिया के प्रांगन में सबकी अपनी मंजिल है
जीवन जल के जैसा है जो खोज रहा अपने ताल को
आज हमारा कल भी अपना याद करो बीते कल को
जो भी भूल हुए अनजाने उनको क्यों कर दुहराना
नजरें कर लो अर्जुन जैसी जीना चाहो कुछ पल तो
मानव हो तो मनन करो अंतर्मन सबका निश्छल है
दुनिया के इस प्रांगन में अब सबकी अपनी मंजिल है
कर्म करो फिर आहें भर लो ऐसी क्या मज़बूरी है
अपने ऊपर करो भरोसा जद्दोजहद जरूरी है
जन समझ लो पल पल सम्हालो समय नहीं रुकने वाला
लाभ मिले या होवे हानि मानो सब कस्तूरी है
' कर्मवीर ' अब कौन बनेगा ये तो कहना मुस्किल है
दुनिया के इस प्रांगन में अब सबकी अपनी मंजिल है

गुरुवार, 17 जून 2010

नक्सलवाद

नक्सलवाद
नासमझों की नादानी
जो करते हैं अपनी मनमानी
जिससे बदल रही है भारत की अपनी कहानी
जिसपर उन्हें एक दिन पछताना होगा ||
नक्सलवाद
सभ्य समाज पर एक करारा ब्यंग
जो बना रहा है हमें और आपको कटी पतंग
बेगाने बनते जा रहे हैं अपने ही अंग
उन्हें अपना बनाना होगा ||
नक्सलवाद
बन्दुक के बल पर देती है प्रभुताई
बिना परिश्रम के करवाती है कमाई
बन बैठे हैं अपने हीं घर में कितने बलवाई
उन्हें कैसे भी हो फिर से समझाना होगा ||
नक्सलवाद
पूरब से आई एक आंधी जिसने
हिंसा से अपनी समा बाँधी
भूल गए जो गौतम और गांधी
आज उन्हें फिर से याद दिलाना होगा ||

- नक्सलवाद पर गिरीश पंकज की प्रस्तुति

अरुंधति राय जैसी पश्चिमोन्मुखी (और कुछ अर्थों में पतनोन्‍मुखी भी) लेखिकाओं को यह पता है कि अगर मीडिया में बने रहना है तो हथकंडे क्या हो सकते हैं। और वह अकसर सफल रहती हैं। अरुंधति के बहुत-से लटके-झटके मैं देखता रहा हूँ, सबका जवाब देने का कोई मतलब भी नहीं, लेकिन इस बार जब वह खुलेआम हिंसा की वकालत कर रही है तो न चाह कर भी कुछ लिखना पड़ रहा है। सृजनधर्मी मन हमेशा समाज को दिशा देने का काम करता है। मुक्तिबोध की कविता है-जो भी है उससे बेहतर चाहिए, पूरी दुनिया साफ़ करने के लिए मेहतर चाहिए- तो लेखक की भूमिका कचरा साफ करने की होती है। कचरा बढ़ाने की नहीं। लेकिन जब समाज में हिंसा का कचरा फैलाने वाले बुद्धिजीवी बढ़ जाएँगे तो कल्पना करें कि सामाजिक परिदृश्य कैसा होगा? नक्सली कोई सामाजिक क्रांति के लिए जंगलों में नहीं भटक रहे हैं। वे हत्यारे हैं, एक तरह के आतंकवादी ही हैं, और सामाजिक समरसता के दुश्मन हैं। इनका मकसद है हत्या के सहारे अपने आतंक की सत्ता स्थापित करना। नक्सलवाड़ी से निकला आंदोलन उस वक्त जरूर विचारधारा के साथ सामने आया था। लेकिन धीरे-धीरे वह आंदोलन दिशाहीन घोड़े की तरह दौड़ता हुआ एक दिन अनैतिकता और अशांति की खाई में जा गिरा। नक्सलवाद के जनक कानू सान्याल को हताश हो कर आखिर आत्महत्या करनी पड़ी। सिर्फ इसलिए कि जिस आंदोलन को जिन उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए उन्होंने शुरू किया था, वे उद्देश्य तो पूरे नहीं हुए, उल्टे सामाजिक नुकसान ज्यादा हो गया। संघर्ष के सिपाही हत्यारे निकल गए। सुबह-शाम हत्या,हत्या और सिर्फ हत्या। हत्या नहीं तो फिर तोडफ़ोड़,अपहरण, लूटपाट आदि।

जंगल में मारे-मारे फिरते ये तथाकथित क्रांतिकारी आखिर चाहते क्या हैं? होना क्या चाहिए? एक बेहतर समाज-व्यवस्था ही न? लोग ईमानदारी से काम करें। गरीबों को उनका हक मिले। यह सब पाने के लिए मुख्यधारा में आने में क्या दिक्कत है? सामने आ कर चुनाव लड़ें। अपना पक्ष रखें और सरकार बनाएँ। मैं यह भी मानता हूँ कि अब जैसे चुनाव हो रहे हैं, उनमें बहुत अच्छे लोगों का निर्वाचन भी संदिग्ध है, क्योंकि वहाँ धन-बल और बाहुबल भी चलता है, फिर भी एक संभावना बनी हुई रहती है। कोशिश करके देखना चाहिए। हो सकता है, हम जैसी सरकार चाहते हैं, एक दिन वैसी ही सरकार बन जाए। मैं खुद इस वर्तमान व्यवस्था से नाखुश हूँ। जनप्रतिनिधि अपराधी है,धोखेबाज हैं। अफसर उससे भी ज्यादा खतरनाक है। और अगर आईएएस और आईपीएस हैं तो वो और ज्यादा भ्रष्ट, क्रूर, व्यभिचारी। दुर्भाग्य हमारे लोकतंत्र का,कि ये लोग ही देश चला रहे हैं। यह जो समूचा सिस्टम है, उसके खिलाफ मुहिम चलनी चाहिए। सबसे जरूरी है जनता को बौद्धिक बनानान। उसे ईमानदार करना। जनता को प्रलोभनों केसहारे बेईमान करने की काशिश होती है तंत्र के द्वारा। इसके विरुद्ध एक बिल्कुल नई लड़ाई की तैयारी की जानी चाहिए लेकिन सारी तैयारी अंहिंसक हो। अहिंसा हमारी ताकत बने। हिंसा भयानक कमजोरी है।

क्रूरता के विरुद्ध धैर्यपूर्वक लड़ी जा राही एक अहिंसक लड़ाई का एक उदाहरण देना चाहता हूँ। देवनार (मुंबई) में कसाईखाने के विरुद्ध तीस साल से आंदोलन चल रहा है। लोग आते हैं, धरना देते हैं, नारे लगाते हैं, गिरफ्तारी भी देते हैं और बाद में रिहा कर दिए जाते हैं। तीस साल से यह अभियान चल रहा है लेकिन कसाईखाना बंद नहीं हुआ। एक रास्ता यह भी हो सकता था, कि कुछ लोग जाते और कसाईखाना चलाने वाले की हत्या कर देते, कसाईखाने का बारूद से उड़ा देते। लेकिन क्या कसाईखाना बंद हो जाता? नहीं, वह चलता रहता। गाँधी और विनोबा जैसे चिंतन शांति और सद्भावना के साथ परिर्वतन की बात करते थे। विनोबा ने कहा था, कि अंहिंसक तरीके से अभियान चलाना,चाहे कितने ही साल लग जाए। कसाईघर के मालिक का दिल बदले। गो मांस खाने वालों में करुणा जगे। और यह दिल बदलने शताब्दियाँ भी लग सकती हैं। गाँधी की अहिंसा के सहारे चल कर एक दिन हम आजाद हुए ही। अँगरेजो को हमारे ‘करो या मरो’ के आगे झुकना ही पड़ा। हमारे लोग डंडे खाते थे और नमक बनाते थे। सविनय अवज्ञा आंदोलन, सत्याग्रह जैसे जुमले गाँधीजी ने दिए। पूरी दुनिया उस रास्ते पर चल पड़ी ।

आज पूरी दुनिया में गाँधी जयंती ‘अहिंसा दिवस’ के रूप में मनाई जाती है। और अरुंधती राय कहती है कि गाँधी के रास्ते से परिवर्तन नहीं हो सकता? कौन कहता है, नहीं हो सकता? इस राह पर चलने की कोशिश तो करो। हम पहले से ही यह सोच ले कि ऐसा नहीं हो सकता तो फिर वैसा हो भी नहीं सकता। कोशिश करें। बौद्धिक जागरण अभियान चलाएँ। यह भी ठीक है कि प्रक्रिया लंबी है। जैसा मैंने बताया तीस साल से आंदोलन चल रहा है, लेकिन कसाईखाना बंद नहीं हुआ, लेकिन कोई बड़ी बात नहीं, कि अगर कुछ लोग पूरे देश में आमरण अनशन पर बैठ जाएँ तो सरकार को झुकना ही होगा। लोग तय कर लें कि अब हमें गाय बचाने के लिए अपनी जान देनी ही है और बैठ जाएँ आमरण अनशन पर। एक दिन, दो दिन, तीन दिन, सौ दिन..। जब तक जिंदा रह सकें, अनशन करे वरना मरने को तैयार रहें। एक दिन सरकार झुकेगी और बंद होगा कसाईखाना। गाँधीजी ने कितने उपवास किए, उसका असर होता था। अंगरेज सरकार झुकती थी। भगतसिंह और उनके साथियों ने भी जेल में यही किया। जेल में अनशन पर बैठ गए, सरकार झुकी। वैसे अब सरकारी नीचताएँ और ज्यादा सघन हो चुकी है। क्रूर लोग झुकते नहीं, लेकिन कहा गया है न कि पत्थर भी पिघल सकता है। यह व्यवस्थारूपी पत्थर पिघलेगा। हम अपनी जान देने के लिए तैयार तो रहें। लेकिन हम कायर लोग अपनी जान देने से डरते हैं और दूसरे की जान लेने के लिए तैयार रहते हैं। वो भी छिप कर। बस, साँप-छुछूमंदर का खेल चलने लगता है। नक्सली हिंसा करते हैं तो पुलिस और सैन्यबल उनको मारने की कोशिश करता है। इस चक्कर में भोले-भाले आदिवासी चपेट में आ जाते हैं।

दरअसल हिंसा इस दौर में एक एडवेंचर है। हिंसा करके बुद्धिजीवी समझते हैं, हम क्रांति कर रहे हैं। उनका समर्थन करके भी कुछ लोग यही समझते हैं कि हम सामाजिक परिवर्तन में अपनी विशिष्ट भूमिका का निर्वाह कर रहे हैं। खादी का कुरता-पायजमा या जींस की फुलपैंट पहन कर आज के छद्म बुद्धिजीवी हवाईयात्राएँ करते हैं। पंचतारा होटलों मे रुकते हैं। वैभवशाली जीवन जीते हैं। तमाम तरह की चरित्रहीनताओं में लिप्त रहते हैं। महंगी शराब पीते हैं। अय्याशियाँ करते हैं। और वक्त मिला तो सामाजिक परिवर्तन का भाषण पेलते हैं। दुखद यह है कि पापुलर मीडिया (जनसंचार माध्यम) ऐसे ही लोगों के पास है। ‘आउटलुक’ पत्रिका में जब अरुंधति राय का नक्सलियों के साथ रहने वाली रपट छपी तो उसे और ज्यादा प्रचार मिला। अरुंधती को पता चला गया है कि उसकी कुछ तो मार्केट वेल्यू बन गई है। इसलिए वह डंके की चोट पर कहती है, कि उसे गिरफ्तार भी कर लिया जाए तो वह नक्सलियों का समर्थन बंद नहीं करेगी। और ठीक बात भी है। कल को अगर यह मूर्ख व्यवस्था उसका और अधिक लोकप्रिय बनाने के लिए उसे गिरपफ्तार भी कर लेगी तो वही होगा जो अरुंधती चाहती है। वह और ज्यादा सुर्खियों में आ जाएगी। इसलिए कायदे से होना यह चाहिए कि उसकी बात तो सुनी जाए मगर उस पर कोई कानूनी कार्रवाई न हो। उल्टे जनता के बीच से ऐसे लोग सामने आएँ जो इस हिंसक मानसकिता का जवाब दे। हिंसक लोगों के खिलाफ अहिंसक तरीके से लड़ाई लड़ी जाए। वरना हिंसक और अहिंसक का भेद कैसे पता चलेगा? सरकार अरुंधती राय को गिरप्तार करेगी, जेल में ठूँस देगी या प्रताडि़त करेगी तो सरकार की अलोकतांत्रिक छवि ही उभर कर सामने आएगी। तब पूरी दुनिया में उसकी निंदा होगी।

हमारे देश में लोकतंत्र है। तानाशाही नहीं, कि किसी ने सरकार विरोधी बात की तो उसे अंदर कर दिया गया। कभी-कभी मूर्ख सरकारों द्वारा ऐसी हरकतें करने की कोशिशें भी होती है, तब दुख होता है। लोकतंत्र में खुल कर अपनी बात कहने की आजादी होनी चाहिए। तभी तो लोकतंत्र है। उसकी गरिमा है। लेकिन अगर कोई हिंसा की खुलेआम वकालत करता है तो जनता के बीच से आवाज उठे। दुख की बात है कि आवाजें उठती नहीं। हम लोगों के हाथों में जब से टीवी का रिमोट आ गया है, हम चैनल-बदल-बदल कर अपना समय निकाल देते हैं। ऐसी अराजक ताकतों के विरुद्ध गोष्ठियाँ नहीं करते। उनकी निंदा नहीं करते। इनका तरीके से जवाब नहीं दे पाते। देंगे भी तो हिंसक अंदाज में। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता सबको है। अगर एक कहता है हम हिंसा के साथ है, तो दूसरा भी विनम्रता के साथ कहें कि हम अहिंसा के गायक हैं। अरुंधति के जो विचार सामने आए हैं, उससे साफ हो जाता है कि वे इस देश में हिंसक माहौल बनाना चाहती है लेकिन सरकार और समाज उनकी मंशा पूरी न होने दे। नक्सलियों के विरुद्ध सलवाजुडूम चल ही रहा है। इसे और मजबूत करने की जरूरत है। बस्तर और देश भर में नक्सलवाद के विरुद्ध जनजागरण अभियान चलना चाहिए। हिंसाप्रेमी लोगों को यह बात समझ में आनी चाहिए कि इस देश के लोग हिंसा के पक्षधर नहीं है। यह कोई बर्बरकाल नहीं है कि किसी ने अन्याय किया तो उसकी आँख फोड़ दी, हाथ काट दिया। यह लोकतांत्रिक समय है। यहाँ जो कुछ होगा, शांति के रास्ते पर चल की रही होगा। बस, धीरज की जरूरत है। नि:संदेह भ्रष्टतंत्र में जीते हुए मेरे जैसे गाँधीवादी को भी बेहद तकलीफ होती है। मेरे आसपास अनेक पापियों को फलते-फूलते देखता हूँ, उन नेताओ और घटिया-शातिर अफसरों को भी जानता हूँ, जिनकी जगह केवल जेल हैं। वे बड़े अपराधी है लेकिन हम लोग अहिंसा के सहारे क्रांति करने वाले हैं। समय लगेगा। व्यवस्था बदलेगी। हो सकता है हम लोग मर जाएँ फिर भी यह व्यवस्था बनी रहे। फिर भी आवाजें उठती रहे। आज नहीं को कल बेहतर लोग आएंगे। बेहतर दुनिया बनेगी। शातिर अपनी मौत मरेंगे। उनकी जान लेकर हम उनसे बड़े अपराधी बन जाते हैं। अगर नक्सलियों के संबंध में कहूँ, तो वे जान ले रहे हैं, तो सामाजिक परिवर्तन के लिए नहीं ले रहे। उनका उद्देश्य केवल सनसनी फैलाना है। यहाँ विचारधारा बेमानी है। इसलिए जब अरुंधति नक्सली-हिंसा का समर्थन करती है तो चिंता होती है। कहीं देश के अन्य बुद्धिजीवी भी पागल हिंसक सियार की तरह (हिंसा का) हुआ-हुआ न करने लगे इसलिए जरूरी है कि ऐसी अराजकताओं के विरुद्ध अहिंसक व्यवस्था को एकजुटता प्रदर्शित करनी ही पड़ेगी।

गुरुवार, 22 अप्रैल 2010

बुलंदी

मुश्किलों को साथ लेकर जो नहीं चल पायेगा
इस जमाने में बुलंदी वो कहाँ से पायेगा ?

हो बिमारी या पलायन या हो बिपदा की घडी
कष्ट पर हो कष्ट या फिर आपदा हो आ पड़ी
आग पर चलना पड़े या पर्वतों की श्रृंखला
सामने हो शेर या फिर मौत हो आकर खड़ी
वक्त आने पर नहीं जो आत्मबल दिखलाएगा
इस जमाने में बुलंदी वो कहाँ से पायेगा

क्यों हमारी राह में बस फूल हीं खिलते रहें ?
क्यों नहीं आगे बढ़ें हम शूल का स्वागत करें ?
क्यों कभी कमजोर बन कर मांगते हैं हम दुआ?
क्यों नहीं खुद हीं डगर पतवार भी बनते चलें ?
राह हो दुर्गम मगर जो चलने से घबराएगा
इस जमाने में बुलंदी वो कहाँ से पायेगा

सफल होना चाहते तो गरल भी स्वीकार कर
उन्नति जो चाहते तो कष्ट अंगीकार कर
जिंदगी जीना जो चाहो हर कदम मरते चलो
मुश्किलों के सामने तुम शीश को नीचा न कर
नाज जो निज कर्म पर हो राह बनता जाएगा
हर जमाने में बुलंदी पर वही रह पायेगा

सोमवार, 29 मार्च 2010

नक्सलवादी न सम्हले तो पीछे तुम पछताओगे

नक्सलवादी न सम्हले तो पीछे तुम पछताओगे
अपने घर के आँगन बे मौत ही मारे जाओगे
तुम सब सच्चे बाकी झूठे कैसी रीत तुम्हारी है ?
अन्धकार में रहने वाले पिछडापन क्यों प्यारी है ?
बनते हो तुम भाग्य विधाता लेकिन शोषण करते हो
मार रहे तुम बेगुनाह को कैसी प्रीत तुम्हारी है ?
जग जायेगी जनता जिस दिन उस दिन क्या कर पाओगे ?
नक्सलवादी न सम्हले तो पीछे तुम पछताओगे |
तुम सब अच्छे मान गए हम लेकिन क्यों धमकाते हो ?
नौकरी पेशा करते हैं जो उनसे पैसा खाते हो
क्या तेरे करता धरता को करने को कुछ काम नहीं
या तुम उनको जान बुझ कर शोषक वर्ग बनाते हो ?
आज तुम्हारे रगों में पानी कल तुम क्या बतलाओगे ?
नक्सलवादी न सम्हले तो पीछे तुम पछताओगे ||
अन्न नहीं उपजे अफीम क्या यही तुम्हारा नारा है ?
हाथों में हथियार सभी के क्या तुमको अब प्यारा है ?
सोचो तेरे भी हम दम हैं वे भी मारे जायेंगे
हालत बद से बदतर है क्या तुमने कभी विचारा है ?
अपने घर में हम परदेसी तुम किसके घर आओगे ?
नक्सलवादी न सम्हले तो पीछे तुम पछताओगे |
रेल हमारी करें सवारी ऐसा क्या अपराध किया ?
तोड़ रहे तुम उसकी पटरी किसने क्या प्रतिकार किया ?
क्योंकि तुमको नापसंद क्यों हम सब प्रगतिवादी हैं
आँखें तुमने बंद किया बदहाली स्वीकार किया
जंगल जंगल भटक रहे तुम किस दिन वापस आओगे ?
नक्सलवादी न सम्हले तो पीछे तुम पछताओगे ||
देश हमारा तब हीं तुम हो इसको क्या झुठलाओगे
नक्सलवादी न सम्हले तो पीछे तुम पछताओगे ||

मंगलवार, 23 मार्च 2010

अपने घर क्यों नहीं आते हो

नक्सलवादी स्वयं को तुम ताकतवर कैसे कहते हो ?
गोला बारूद पास तुम्हारे फिर भी छिप कर रहते हो |
नहीं मानते तेरी बातें क्योंकि तुम भरमाते हो
समता की बातें कर करके समता को झुठलाते हो
किससे तुम लड़ने को तत्पर किसने क्या नुकसान किया ?
नौजवान नादान उन्हें भी बेमतलब बहकाते हो |
तुम हो खाली फिर बलशाली किसका बल दिखलाते हो ?
नक्सलवादी बोलो तुम ताकतवर क्यों कहलाते हो ?
बैठे कमजोर देश को शायद इसका पता नहीं
देशद्रोही परदेशी पिट्ठू कह दें तो भी खता नहीं
लाते हो व्यवधान निरंतर काम कोई हो सरकारी
होता है नुकशान हमारा इसका तुमको पता नहीं
कहते तुम मेरे संरक्षक मौत निरंतर लाते हो
नक्सलवादी बोलो तुम ताकतवर क्यों कहलाते हो ?
सड़क बंद रेलें रोकी बंद किया बाजारों को
हुआ हर्ज अब लाखों का बेकार किया हजारों को
क्यों तुमको चुपचाप सहें क्या काम किया है प्रगति का ?
दुनिया वाले देख रहे हैं तेरे सभी नजारों को
क्षेत्र अभी अपना अशांत क्यों आजादी झुठलाते हो ?
नक्शाल्वादी बोलो तुम तकतावार क्यों कहलाते हो ?
यदि देश है तब हीं हम हैं बरना होंगे परदेशी
आ जाओ वापस अपने घर त्यागो अपनी मदहोशी
देता है हथियार तुम्हें तो खबरदार कर दो उनको
बन बैठा बेकार का दुश्मन जैसे ऐंठा हो रस्सी
उगने दो शान्ति की फसलें क्यों बेकार डराते हो
नक्सलवादी बोलो तुम अपने घर क्यों नहीं आते हो ?

एक निवेदन

सभी कविता प्रेमिओं को नागेन्द्र का नमस्कार ।
दोस्तों , मैं कोई स्थापित कवि नहीं हूँ , बस अपने आस पास घटने वाली घटनाओं से प्रभावित अपने मनोभावों को कलम के सहारे कागज पर उतार कर अपने ब्लॉग के सहारे आप तक लाने का प्रयास कर रहा हूँ । नहीं मालूम इसमें कितना सफल हो पाउँगा । परन्तु यदि आपका प्यार बना रहा तो मुझे आत्म संतुस्ती तो मिलेगी हीं आपको भी निराश नहीं होना पडेगा । धन्यवाद !

बुधवार, 17 मार्च 2010

एक अपील नक्सलवादियों से

एक अपील नक्सलवादियों से

आगे आओ माओ वादी मिलकर तुमसे बात करें
काली करतूतों पर तेरी छोटा सा आघात करें
बन बैठे तुम भाग्य विधाता किसने यह अधिकार दिया
ग्रामीण हो या शहरी कोई किसने तुम्हें स्वीकार किया
खेल रहे तुम खून की होली आज अहिंसा की धरती पर
अन्धकार है तुमको प्यारी गुमनामी स्वीकार किया
क्या अपराध किया है हमने आओ उसकी बात
काली करतूतों पर तेरी छोटा सा आघात करें ||
नक्सलवादी कहलाकर तुम अपना धोंस जमाते हो
हथियारों के बल पर चलकर सबको यहाँ डराते हो
लाते हो बर्बादी हरपाल अपने ही घर आँगन में
लालच के पुतले तुम हरदिन भेद बढाते जाते हो
क्या है हालत आज हमारी आओ उसकी बात करें
काली करतूतों पर तेरी छोटा सा आघात करें ||
प्रगति के सब काम अधूरे कहाँ से आये खुशहाली
विद्यालय भवनों को तोड़ा शिक्षा में दी बदहाली
तेरी फितरत तुम ही जानो मेरा क्या इसमें लेना
जन्म भूमि जो गाँव तुम्हारे खाली क्यों करवाते हो ?
आज जहाँ तुम खड़े हो प्यारे आओ उसदी बात करें
काली करतूतों पर तेरी छोटा सा आघात करें ||
चीन नहीं है हमदम वह तो स्वार्थ साधना करता है
भारत की प्रगति को कायर सहन नहीं कर सकता है
तुम तो निकले बस एक मोहरे लाल सलाम लगाते हो
लेकिन दुश्मन छिप कर बैठा सामने आते डरता है
हो सपूत तुम मातृभूमि के आओ मिलकर बात करें
सांप सपोले जितने भी हैं उन पर एक आघात करें
समय अभी है न सम्हले तो कल को तुम पछताओगे
धरती अपनी नहीं रही तो बोलो कहाँ तुम जाओगे ?
लाओगे तुम कहाँ से शान्ति जो पहचान हमारी है
तिब्बत का क्या हाल हुआ क्या इसको भी भूल पाओगे ?
लानत भेजो उसपर जो हम सबको भरमाया है
अपने मन को रोशन कर लो अन्धकार गहराया है ||
आगे आओ माओवादी भारत की कुछ बात करें
चीन सदा से रहा है दुश्मन उसपर एक आघात करें ||

सोमवार, 15 मार्च 2010

भीमा नन्द

भीमानंद

वस्त्र गेरुआ लम्बे बाल
मीठी वाणी मोटी खाल
चाल निराली करनी काली
सत्ता पक्ष करे रखवाली
दूर दूर तक फैली माया
मनमोहक है जिसकी काया
लेकिन नाग वंश के जैसे
होता नहीं उसे मलाल ||
पूजा संध्या सब करवाता
धर्मं धुजंधर वह कहलाता
माया की महफ़िल का पोषक
कोई करता नहीं सवाल
इसीलिए करता मनमानी
जग जाहिर इसकी शैतानी
फिर भी जन मानस की चुप्पी
पैदा करता कई सवाल
आतंकी भी इससे पीछे
चला गया वह इतना नीचे
जन गन मन बस देख रही
है साँस रोक कर आँखें भींचे
इसीलिए तो इसको भाती
मदिरा सेवन और सबाब
कैसे साधू इसको बोलें
क्यों न अपनी आँखें खोलें
भेष बदल कर हमला करने
आया फिर से एक कसाब
साधू तो सज्जन होते हैं
पर दुःख कातर वे रोते हैं
सोते नहीं कभीजीवन में
सबका भला सदा करते हैं
आज ज़माना बदल गया क्यों
ये तो लगते एक नवाब ||
बात नहीं एक भीमानंद की
कितने अब भी ऐसे बंदी
करतब करके निंदनीय जो
बन जाते जैसे परवाज
आओ मिलकर खोलें पोल
अपना भी बनता है रोल
वर्ना बदनामी हीं होगी
ढोंगी जब होंगे सरताज ||

सोमवार, 8 मार्च 2010

सन्देश

सन्देश
वाह ठाकरे बंधू तुमने इतना कुछ फरमाया है
महाराष्ट्र के वासी सबको जी भरकर भरमाया है
कह कर हिंदूवादी तुम तो क्षेत्रवाद ही करते हो
कहते हो जिंदादिल लेकिन पग पग पर तुम मरते हो
मुंबई तेरी महाराष्ट्र भी हम तो भारत वासी हैं
या फिर बाहर वालों से तुम मन ही मन अब डरते हो
तोड़ फोड़ कर मार पीट कर जो तुमने फरमाया है
महाराष्ट्र के वासी सबको जी भरकर भरमाया है
मिले वोट सत्ता भी पाओ तेरा जो यह सपना है
कहते तुम जिनको मराठी वह तो तेरा अपना है
क्यों उनको संकीर्ण बना कर सीमा रेखा खींच रहे
रास्ट्र बड़ा या महाराष्ट्र इन बातों से क्या करना है
कर्मवीर जो जनता तेरी फिर ये क्यों फरमाया है
महाराष्ट्र के वासी सबको जी भरकर भरमाया है
एक बार तुम बाहर निकलो देखो दुनिया बदल गई
प्रगति पथ पर आकर अब तो हालत सबकी बदल गई
लेकिन तुम तो वहीँ अभी तक गड़बड़झाला करते हो
राह बनालो आगे आकर अंधी गलियाँ निकल गई
बनो नहीं बदनाम आज भारत ने तुम्हें पुकारा है
महाराष्ट्र के वासी सबको संदेशा भिजवाया है
महाराष्ट्र के वासी सबको संदेशा भिजवाया है

रविवार, 7 मार्च 2010

माटी की खुशबू

माटी की खुशबू दिला दो रे भाई
जिस पर न्योछावर है साड़ी खुदाई
वो नदिया का पानी वनों की रवानी
नहीं भूल पाया हूँ कोई निशानी
वो बागों के झूले वो उड़ते बगुले
वो गलियाँ पुरानी वो मिट्टी के चूल्हे
वो गेहूं की बाली भरी थी या खाली
सभी को पता था सभी थे सवाली
न दिखती है सरसों न दिखती है राई
वो माटी की खुसबू दिला दो रे भाई ||
लड़कपन में लडती वो लड़कों की टोली
वो फागुन में आती थी हुडदंग होली
वो सावन का आना नदी में नहाना
वो पूजा का मौसम गया क्यों ज़माना
वो मक्के की बाली वो स्वाद निराली
वो गन्ने की खेती वो मीठी सी गाली
वो प्यारी सी दुनिया हुई क्यों पराई
वो माटी की खूसबू दिला दो रे भाई ||
कहाँ आ गया मै कहर ढ़ा गया मैं
कैसी ये बस्ती शहर आ गया मैं
नहीं कोई सुनता सभी भागते हैं
किसकी कहूँ मैं सभी आंकते हैं
कभी मांगते हैं ये पहचान मेरी
कभी जांचते हैं वे छोटी सी गठरी
समझ पाऊं मैं न करूँ क्या गुसाईं
वो माटी की खूसबू दिला दो रे भाई ||
वो माटी की खूसबू दिला दो रे भाई ||

मंगलवार, 2 मार्च 2010

बुलंदी

बुलंदी

मुश्किलों को साथ लेकर जो नहीं चल पायेगा
इस जमाने में बुलंदी वो कहाँ से पायेगा

हो बिमारी या पलायन या हो बिपदा की घडी
कष्ट पर हो कष्ट या फिर आपदा हो आ पड़ी
आग पर चलना पड़े या पर्वतों की श्रृंखला
सामने हो शेर या फिर मौत हो आकर खड़ी
वक्त आने पर नहीं जो आत्मबल दिखलाएगा

इस जमाने में बुलंदी वो कहाँ से पायेगा ||

क्यों हमारी राह में बस फूल हीं खिलते रहें ?
क्यों नहीं आगे बढ़ें हम शूल का स्वागत करें ?
क्यों कभी कमजोर बन कर मांगते हैं हम दुआ?
क्यों नहीं खुद हीं डगर पतवार भी बनते चलें ?
राह हो दुर्गम मगर जो चलने से घबराएगा
इस जमाने में बुलंदी वो कहाँ से पायेगा ||

सफल होना चाहते तो गरल भी स्वीकार कर
उन्नति जो चाहते तो कष्ट अंगीकार कर
जिंदगी जीना जो चाहो हर कदम मरते चलो
मुश्किलों के सामने तुम शीश को नीचा न कर
नाज जो निज कर्म पर हो जाह बनता जाएगा
हर जमाने में बुलंदी पर वही राग पायेगा ||

शनिवार, 27 फ़रवरी 2010

सकल सुमंगल दायिनी , कर सुमिरन ब्रह्माणी
शारदे शक्ति दे तुम्हें , सब विधि हो कल्याण
निर्भय हो पेपर करो , दिशा रहे अनुकूल
साईं श्रद्धा हृदय रख , कभी न होगी भूल ||

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